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Monday, January 31, 2011

मैं स्कूल नहीं जाऊंगी ........................................


 
मैं स्कूल नहीं जाने वाली। क्यूंकि निन्नी आ रही है। मुझे सर्दी लग गई है। स्कूल में मुझे कोई पसंद नहीं करता।

मैं स्कूल नहीं जाने वाली। क्यूंकि दो बच्चे हैं वहां। मुझसे इत्ते बड़े। मुझसे ताकतवर। जब उनके बगल से गुजरती हूं तो बाहें फैलाकर रास्ता रोक लेते हैं वे मेरा। डर लगता है मुझे।

डर लगता है मुझे। मैं स्कूल नहीं जाने वाली। स्कूल में, व़क्त तो बस ठहर जाता है। सब कुछ छूट जाता है बाहर। स्कूल के गेट के बाहर।

मिसाल के तौर पर घर का मेरा कमरा। मेरी मम्मी भी, और पापा, खिलौने मेरे। और बालकनी पर वो परिंदे। जब स्कूल में होती हूं और उनके बारे में सोचती हूं तो रोना आ जाता है मुझे। बाहर देखने लगती हूं खिडकी से, वहां बादल होते हैं न।

मैं स्कूल नहीं जाने वाली। क्यूंकि वहां कुछ भी अच्छा नहीं लगता मुझे।

उस दिन एक पेड़ की तस्वीर बनाई थी मैंने। टीचर ने कहा, ‘यह सचमुच एक पेड़ ही है, बहुत अच्छे।’ मैंने फिर एक दूसरी बनाई। इसमें भी कोई पत्तियां नहीं थीं।

फिर उन्हीं में से एक बच्चा मेरे पास आया और मेरा मजाक उड़ाने लगा।

मैं स्कूल नहीं जाने वाली। रात को सोते समय जब अगले दिन स्कूल जाने के बारे में सोचती हूं तो दहशत होती है बहुत। मैं कहती हूं, ‘मैं स्कूल नहीं जाने वाली।’ वे बोलते हैं, ‘ऐसा कैसे कह सकती हो तुम? स्कूल तो सभी लोग जाते हैं।’

सभी लोग? तो फिर जाने दो न सभी को। आखिर क्या हो जाएगा जो मैं घर पर ही रुक जाऊं? कल गई थी न मैं, नहीं क्या? कैसा रहेगा अगर मैं कल न जाऊं, और फिर उसके अगले दिन चली जाऊं?

काश मैं घर पर होती अपने बिस्तर पर। या अपने कमरे में। काश कि मैं और कहीं भी होती सिवाय उस स्कूल के।

मैं स्कूल नहीं जाने वाली। बीमार हूं मैं। दिख नहीं रहा आपको? जैसे ही कोई कहता है स्कूल, मैं बीमार हो जाती हूं, पेट दर्द करने लगता है मेरा। वो दूध भी नहीं पिया जाता मुझसे।

वह दूध नहीं पीना मुझे, मुझे कुछ नहीं खाना, और न ही स्कूल जाने वाली हूं मैं। कितनी परेशान हो गई हूं। मुझे कोई पसंद नहीं करता। वे दोनों बच्चे हैं वहां। बाहें फैलाकर रास्ता रोकते हैं वे मेरा।

टीचर के पास गई थी मैं। टीचर ने कहा, ‘मेरे पीछे-पीछे क्यूं लगी हो?’ अगर आप नाराज न हों तो मैं आपको कुछ बताऊँ। मैं तो हमेशा टीचर के पीछे ही लगी रहती हूं, और टीचर हमेशा यही बोलती रहती हैं कि ‘मेरे पीछे-पीछे न आओ।’

मैं स्कूल नहीं जाने वाली, कब्भी नहीं। क्यूं? क्यूंकि मैं बस वहां जाना नहीं चाहती, इसीलिए और क्यूं।

रेसेस के वक़्त मैं बाहर भी नहीं जाना चाहती। जब सब लोग मुझे भूल चुके होते हैं तभी रेसेस होता है। फिर सब कुछ एकदम से घालमेल हो जाता है, सभी भागने लगते हैं।

टीचर मुझे घूर कर देखने लगती हैं। और बस इतना कहूंगी कि वे इतनी अच्छी नहीं लगतीं। मैं स्कूल नहीं जाना चाहती। वहां एक बच्चा है जो मुझे पसंद करता है, बस वही है जो मुझे अच्छे से देखता है। किसी से बताना मत, लेकिन मुझे वह बच्चा भी नहीं पसंद।

मैं बस वहां बैठी-पड़ी रहती हूं। कितना अकेलापन महसूस होता है मुझे। आंसू लुढ़कते रहते हैं मेरे गालों पर। मुझे स्कूल बिलकुल भी पसंद नहीं।

मैं स्कूल नहीं जाना चाहती, कहती हूं मैं। फिर सुबह हो जाती है और वे मुझे स्कूल ले जाते हैं। मैं हंस भी नहीं पाती। मैं अपने सामने एकदम सीधा देखती रहती हूं, रोना आ जाता है मुझे। मैं अपनी पीठ पर फौजियों जितना बड़ा बस्ता लादे पहाड़ी पर चढ़ती हूं, और निगाहें पहाड़ी चढ़ते हुए अपने नन्हे पैरों पर टिकाए रहती हूं। कितना भारी है सब कुछ : मेरी पीठ पर लदा बस्ता, मेरे पेट में पड़ा गर्म दूध। रोना चाहती हूं मैं।

मैं स्कूल में दाखिल होती हूं। लोहे का काला फाटक मेरे पीछे बंद होता है। मैं रो पड़ती हूं, ‘मम्मी, देखो, तुमने मुझे भीतर लाकर छोड़ दिया।’ फिर मैं अपनी कक्षा में जाकर बैठ जाती हूं। बाहर उन बादलों में से कोई एक बादल हो जाना चाहती हूं मैं। इरेजर्स, कापियां, और पेन : मुर्गियों को खिला दो यह सब! (अनुवाद : मनोज पटेल)


Tuesday, January 25, 2011

लोकतंत्र को मजबूत बनाने की जिम्मेदारी हर नागरिक की


राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने मंगलवार को चुनावों में धन के प्रभाव और बाहुबल के इस्तेमाल पर अंकुश लगाने के लिए ठोस कदम उठाने की जरूरत पर जोर दिया। निर्वाचन आयोग के हीरक जयंती वर्ष के समापन समारोह में राष्ट्रपति ने राष्ट्रीय मतदाता दिवस का शुभारंभ करते हुए कहा कि चुनावों के जरिए जनता अपने वैसे प्रतिनिधियों को चुनती है जो उसकी आकांक्षाओं को पूरा करने में सक्षम हों। इसलिए चुनावों में धन के प्रभाव पर अंकुश लगाना जरूरी है जिससे कि वोटों की खरीद फरोख्त न हो।
उन्होंने कहा कि अगर मुफ्त में चीजें बांट कर और पेड न्यूज के जरिए मतदाताओं को प्रभावित करने की छूट दी गई तो वे अपने वास्तविक प्रतिनिधि का चुनाव नहीं कर सकेंगे। पाटिल ने कहा कि उम्मीदवारी की प्रक्रिया ऐसी बनाई जानी चाहिए कि आपराधिक चरित्र के लोग चुनावों में हिस्सा न ले सकें। राष्ट्रपति ने कहा कि देश में लोकतंत्र को मजबूत बनाने की जिम्मेदारी हर नागरिक की है। लिहाजा चुनाव प्रक्रिया को स्वतंत्र और निष्पक्ष बनाने के लिए आयोग, जनता, उम्मीदवारों और राजनीतिक दलों को मिल कर काम करना होगा।
पहले राष्ट्रीय मतदाता दिवस के मौके पर देशभर में 50 लाख से ज्यादा नए मतदाताओं को मतदाता फोटो पहचान पत्र (एपिक) दिए गए। इन मतदाताओं ने लोकतांत्रिक परंपराओं का सम्मान करते हुए धर्म, जाति, भाषा और धन के लोभ से ऊपर उठ कर हर चुनाव में मतदान करने का संकल्प लिया। निर्वाचन आयोग का गठन देश के संविधान के लागू होने से एक दिन पहले 25 जनवरी, 1950 को किया गया था। केंद्रीय मंत्रिमंडल ने हर 25 जनवरी को राष्ट्रीय मतदाता दिवस के रूप में मनाने के विधि मंत्रालय के प्रस्ताव को पिछले बृहस्पतिवार को मंजूरी दी थी।

राष्ट्रपति ने इस अवसर पर पांच युवाओं को एपिक देने के अलावा आठ जिला निर्वाचन अधिकारियों और पुलिस अधीक्षकों को सर्वश्रेष्ठ चुनाव प्रक्रिया पुरस्कारों से सम्मानित किया। समारोह में मुख्य निर्वाचन आयुक्त एसवाई कुरैशी तथा आयुक्तों वीएस संपत और एचएस ब्रह्मा के अलावा लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार, विधि एवं न्याय मंत्री एम वीरप्पा मोइली और सूचना एवं प्रसारण मंत्री अंबिका सोनी भी मौजूद थीं। सोनी ने भारतीय चुनावों के 60 साल पर दूरदर्शन के सहयोग से बनाई गई लघु फिल्म की सीडी राष्ट्रपति को भेंट की।
चुनाव आयोग ने मंगलवार को कहा कि वह लोगों को चुनाव प्रबंधन का प्रशिक्षण देने के लिए एक संस्थान स्थापित करेगा। आयोग के हीरक जयंती समारोह में मुख्य चुनाव आयुक्त ने बताया कि इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ डेमोक्रेसी एंड इलेक्शन मैनेजमेंट का काम शुरू हो चुका है और यह तीन महीने में काम करना शुरू कर देगा। दूसरे देशों के साथ अपनी विशेषज्ञता साझा करने की इच्छा जताते हुए उन्होंने कहा कि संस्थान दूसरे देशों के चुनाव प्रबंधन निकायों को भी प्रशिक्षण की सुविधाएं उपलब्ध कराए


Friday, January 21, 2011

सिंगूर, नंदीग्राम और मथुरा के बाद अब इलाहाबाद में भी ज़मीन के मुआवजे को लेकर किसान पुलिस-प्रशासन से टकरा रहे हैं। खेती के लिए लगातार घटती और बढ़ते परिवारों में बंटती ज़मीन को लेकर देश का आम किसान चिंतित है। किसी भी आम किसान के लिए उसकी ज़मीन रोजी-रोटी कमाने का एकमात्र जरिया होती है। लेकिन जब सरकारी तंत्र किसान से उसकी ज़मीन औनेपौने दाम चुकाकर कब्जा लेता है, तो उसके पास विरोध के अलावा कोई उपाय नहीं बचता है। ऐसे विरोध प्रदर्शनों से आम लोगों को बहुत तकलीफ होती है। क्या ऐसी जायज मांगों के लिए हिंसा, आगजनी, पथराव ही अंतिम उपाय है? क्या किसानों के हिंसक विरोध प्रदर्शन को जायज मांग के लिए भी सही ठहराया जा सकता है? क्या किसान शांतिपूर्वक ढंग से अपनी मांगें नहीं रख सकते? क्या शांतिपूर्वक रखी गई मांगों को लेकर सरकार संवेदनशील होगी और उनकी जायज मांगों को पूरा किया जाएगा?


इलाहाबाद में पुलिस और किसानों में भिड़ंत

किसानों का धरना (फ़ाइल)
इलाहाबाद के करछना इलाके में जेपी ग्रुप के पावर प्लांट के लिए अपनी ज़मीन अधिग्रहित किए जाने के विरोध में इलाहाबाद के किसान शुक्रवार को उग्र हो गए.
किसानों का आरोप है कि पुलिस फायरिंग में गुलाब विश्वकर्मा नाम के एक किसान की मौत हो गई है.
लेकिन लखनऊ में पुलिस प्रवक्ता ने कहा है कि गुलाब विश्वकर्मा की मौत उनके अपने घर पर हार्ट अटैक की वजह से हुई है. किसान पुलिस के इस बयान से सहमत नहीं हैं.
किसानों ने इलाहाबाद-मिर्ज़ापुर हाइवे को ठप कर इलाहबाद मुग़लसराय रेलवे ट्रैक पर तोड़-फोड़ कर उसे भी ठप कर रखा है.
किसानो ने 'रैपिड एक्शन फ़ोर्स' की पांच महिला जवानों को बंधक बना लिया था. प्रदर्शन कर रहे किसानों ने पुलिस और प्रशासनिक अफ़सरों की कई गाड़ियां फूंक दी.

यातायात ठप

करछना के किसान
करछना के किसानों ने रास्ते ठप कर दिए
किसानो के पथराव में कई पुलिस वाले भी घायल हुए हैं. सड़क के अलावा रेल यातायात भी पूरी तरह ठप है.
ग़ौरतलब है कि इलाहाबाद के करछना में 400 करोड़ रुपए से बन रहे जेपी ग्रुप के पावर प्लांट के लिए सरकार की तरफ से ज़मीन लिए जाने के विरोध में किसान अनशन पर थे.
शुक्रवार सुबह पुलिस ने जबरन अनशन तुड़वाकर कब्ज़ा करना चाहा तो किसान उग्र हो गए.
करछना की घटना पर भारतीय जनता पार्टी ने बसपा सरकार को 'बर्बर और अलोकतांत्रिक' क़रार देते हुये मायावती सरकार की आलोचना की है.
भाजपा प्रवक्ता राजेन्द्र तिवारी ने सरकार की नीयत पर सवालिया निशान लगाते हुये कहा,"शांतिपूर्ण ढंग से अपनी जीविका और अस्तित्व की रक्षा के लिये जमीन का मुआवजा मांग रहे किसान पुलिस की गोली का शिकार क्यों हो रहे हैं?"

    Friday, January 14, 2011

    हम एक गणतांत्रिक राज्य को अपनी ही संतानों की हत्या की इजाज़त नहीं दे सकते. 'हमें उम्मीद है कि सरकार से हमें इस मामले में जबाव मिलेगा और वह जवाब संतोषजनक होगा.

    क्यों की गई आज़ाद की हत्या

    सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में छह हफ्ते के भीतर जवाब दाखिल करने का आदेश दिया है.
    कथित तौर पर एक मुठभेड़ में माओवादी नेता चेरुकुरी राजकुमार उर्फ़ आज़ाद और पत्रकार हेमचंद्र पाण्डे के मारे जाने को लेकर दायर की गई याचिका पर सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कड़ी टिप्पणी की है.
    सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ‘एक गणतंत्र को अपनी ही संतान की हत्या की अनुमति नहीं दी जा सकती.’
    छह महीने पहले आज़ाद और हेमचंद्र की मौत कथित तौर पर एक मुठभेड़ में हो गई थी.
    राजकुमार उर्फ़ आज़ाद प्रतिबंधित संगठन सीपीआई (माओवादी) की केंद्रीय समिति के एक वरिष्ठ सदस्य थे. पुलिस ने उन पर आरोप लगाया था कि वो एक माओवादी हैं और दो जुलाई की रात आंध्रप्रदेश के अदीलावाद ज़िले में एक कथित मुठभेड़ में उनकी मौत हो गई थी.
    कोर्ट की यह टिप्पणी अपने आप में बेहद महत्वपूर्ण है. इस मुठभेड़ को लेकर कई तरह के बयान लामने आए हैं. मैं इस टिप्पणी से बेहद खुश हूं.
    स्वामी अग्निवेश
    सामाजिक कार्यकर्ता स्वामी अग्निवेश और हेमचंद्र की पत्नी ने इस मुठभेड़ के ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की थी.
    न्यायमूर्ती आरएम लोढी और आफ़ताब आलम की पीठ ने इस मामले में सख्त टिप्पणी करते हुए कहा कि हम एक गणतांत्रिक राज्य को अपनी ही संतानों की हत्या की इजाज़त नहीं दे सकते.
    सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में केंद्र और आंध्रप्रदेश सरकार को नोटिस जारी करते हुए कहा है कि वो छह हफ्ते के भीतर इस मामले में अपना जवाब दाखिल करें.
    कोर्ट ने कहा, ''हमें उम्मीद है कि इसका जबाव मिलेगा और वह जवाब संतोषजनक होगा.''
    हम एक गणतांत्रिक राज्य को अपनी ही संतानों की हत्या की इजाज़त नहीं दे सकते. 'हमें उम्मीद है कि सरकार से हमें इस मामले में जबाव मिलेगा और वह जवाब संतोषजनक होगा.
    सुप्रीम कोर्ट

    इस मामले में न्यायिक जांच की मांग करते हुए याचिकाकर्ताओं ने दलील दी है कि मानवाधिकार संगठनों की ओर से कराई गई पोस्मार्टम जांच यह साबित करती है कि इन दोनों की मौत मुठभेड़ के दौरान नहीं हुई है.
    कोर्ट की इस टिप्पणी पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए स्वामी अग्निवेश ने कहा, ''कोर्ट की यह टिप्पणी अपने आप में बेहद महत्वपूर्ण है. इस मुठभेड़ को लेकर कई तरह के बयान लामने आए हैं. मैं इस टिप्पणी से बेहद खुश हूं.''
    हेमचंद्र की पत्नी ने इस मामले में कहा, ''मुझे उम्मीद है कि हम यह केस जीत सकते हैं. यह पूरी तरह एक फर्जी मुठभेड़ थी. हैदराबाद पुलिस ने पहले एक पोस्टमार्टम रिपोर्ट बनाई और फिर उसे असली रिपोर्ट से बदल दिया.''
    हालांकि आंध्रप्रदेश के पुलिस महानिदेश ने इस मुठभेड़ को फर्जी न मानते हुए आज़ाद की मौत को सही क़रार दिया है.

      Wednesday, January 05, 2011

      Salient Features of the Right to Education Act of 2009

      Salient Features of the Right to Education Act of 2009

      by UNICEF India on Wednesday, 05 January 2011 at 17:22
      1. Free and compulsory education to all children of India in the 6 to 14 age group.
      2. No child shall be held back, expelled, or required to pass a board examination until completion of elementary education.
      3. If a child above six years of age has not been admitted in any school or though admitted, could not complete his or her elementary education, then, he or she shall be admitted in a class appropriate to his or her age; Provided that where a child is directly admitted in a class appropriate to his or her age, then, he or she shall, in order to be at par with others, have a right to receive special training, in such manner, and within such time- limits, as may be prescribed: Provided further that a child so admitted to elementary education shall be entitled to free education till completion of elementary education even after fourteen years.
      4. Proof of age for admission: For the purposes of admission to elementary education. the age of a child shall be determined on the basis of the birth certificate issued in accordance with the  provisions of the Births. Deaths and Marriages Registration Act, 1856 or on the basis of such other document, as may be prescribed. No child shall be denied admission in a school for lack of age proof.
      5. A child who completes elementary education shall be awarded a certificate.
      6. Calls for a fixed student-teacher ratio.
      7. Will apply to all of India except Jammu and Kashmir.
      8. Provides for 25 percent reservation for economically disadvantaged communities in admission to Class One in all private schools.
      9. Mandates improvement in quality of education.
      10. School teachers will need adequate professional degree within five years or else will lose job.
      11. School infrastructure (where there is problem) to be improved in three years, else recognition canceled.
      12. Financial burden will be shared between state and central government.


      Monday, January 03, 2011

      डॉ. बिनायक सेन के खिलाफ आये रायपुर सेशन कोर्ट के फैसले की विवेचना

      y 2011 at 19:14
      डॉ. बिनायक सेन के खिलाफ आये रायपुर सेशन कोर्ट के फैसले की विवेचना
        

      जैसा की आप सब को विदित है, कि रायपुर के अतिरिक्त जिला एवं सेशन न्यायाधीश श्री बी. पी. वर्मा ने डॉ. बिनायक सेन, पियूश गुहा तथा नारायाण सान्याल को २४ दिसंबर २०१० को सश्रम आजीवन कारावास की सजा सुनायी है. इस फैसले को ९२ पन्नों में स्पष्ट रूप से लिखा गया. यहाँ, इस फैसले का तथा इस मुकदमे से जुड़े तथ्यों का संक्षिप्त विश्लेषण प्रस्तुत किया जा रहा है.

      मुकदमे से जुडी महत्वपूर्ण तारीखें: 
      •  यह मुकदमा जिस प्राथमिक सूचना  रिपोर्ट (FIR)पर आधारित है वह ६ मई, २००७ को दर्ज करवाई गयी. यही वह तारिख है जिस दिन पीयूष गुहा की गिरफ्तारी दर्शाई गयी है. डॉ. सेन को बिलासपुर से १४ मई , २००७ को गिरफ्तार किया गया. इस सन्दर्भ में नारायण सान्याल को तो जुलाई ,२००७ में आरोपी बनाया गया. ध्यान देने लायक बात यह है कि नारायण सान्याल अन्य केस के संदर्भ में इस दौरान पहले ही बिलासपुर जेल में हिरासत में रखे गए थे.
      • इस मुकदमे का आरोप पत्र अगस्त,२००७ को दाखिल किया गया और आरोप २७ दिसंबर, २००७ को लगाए गए और फिर उसके मुतल्लिक मुकदमा चालू हो गया. 
      • उसके बाद मुकदमा दो साल तक चला जहां अभियोग पक्ष के ९७ गवाह और बचाव पक्ष के १२ गवाहों ने अपने बयान दर्ज करवाए. अभियोग पक्ष द्वारा प्रस्तुत कई गवाह तो पुलिस वाले ही थे. इन दो सालों के दौरान इस केस की सुनवाई को समय- समय पर तीन न्यायाधीशों द्वारा संचालित किया गया. ये न्यायाधीश थे, न्यायाधीश सलूजा, न्यायाधीश गणपत राव और अंततः न्यायाधीश बी. पी. वर्मा (ये वो न्यायाधीश थे जिनका निचली न्याय पालिका में बतौर न्यायाधीश स्थाईकरण होना प्रतीक्षित था). यह फैसला और भी देरी से आता अगर पियूष गुहा द्वारा दायर जमानत अर्जी पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अक्टूबर २०१० में यह आदेश नहीं दिया गया होता कि यह मुकदमा ३ महीने में निपटा दिया जाना चाहिए.  
      फैसले का विश्लेषण:


      द्वितीय अतिरिक्त सेशन न्यायालय, रायपुर के न्यायाधीश, बी. पी. वर्मा ने मानवाधिकारों के रक्षक डॉ. बिनायक सेन, कोलकत्ता के व्यावसायी पीयूष गुहा और माओवादी विचारक नारायण सान्याल को भारतीय दंड संहिता (भा.दं.सं.) की धारा १२४ए जिसे धारा १२० बी के साथ पढते हुए, छत्तीसगढ़ विशेष जन सुरक्षा अधिनियम, २००५ (छ.वि.ज.सु.अ., २००५) की धारा ८(१), ८(२), ८(३)और ८(५) और विधिविरुद्ध क्रियाकलाप निवारण अधिनियम १९६७ ( आम तौर पर इसे यू. ए. पी. ए., १९६७ कहा जाता है इससे आगे इसे इस लेख में इसी रूप में लिखा जाएगा), की धारा ३९(२) के तहत सश्रम आजीवन कारावास और अन्य अल्पावधि की कारावास की समवर्ती (साथ-साथ चलनेवाली) सजाएं सुनायी. इसके अलावा नारायण सान्याल को यू. ए. पी. ए., १९६७ की धारा २० के तहत अतिरिक्त सजा सुनायी गयी है. संक्षिप्त रूप से कहा जाए तो भा.दं.सं. की धारा १२४ ए. सहपठित धारा १२० बी. का सरोकार राजद्रोह और राजद्रोह के षडयंत्र से है, और  छ.वि.ज.सु.अ., २००५ की धाराओं का अर्थान्वय है कि इस अधिनियम के तहत अधिसूचित अथवा प्रतिबंधित संगठनों का सदस्य होने अथवा उनसे संबंध रखना अथवा उन्हें किसी प्रकार से उनके उद्देश्यों को पूरा करने के लिए आर्थिक अथवा अन्य प्रकार का आपराधिक सहयोग देना गैरकानूनी कार्य है. जबकि यूं. ए. पी. ए., १९६७ के तहत आतंकवादी संगठनों की सदस्यता अथवा आतंकवादी कारवाइयों से संबंधित रहना, अथवा आतंकवादी संगठनों को समर्थन देना दंडनीय माना गया है.

      उपरोक्त कानूनों के तहत तीनों आरोपियों को अपराधी ठहराने के लिए इस न्यायिक फैसले को किसी भी पर्याप्त संदेह से परे यह स्थापित करना था कि अभियुक्त या तो राजद्रोही गतिविधियों में व्यक्तिगत अथवा संगठन के सदस्य के बतौर प्रत्यक्ष रूप से लिप्त थे, या फिर व्यक्तियों अथवा संगठनों को राजद्रोही गतिविधियों के लिए उकसाने या उसे आगे बढाने का षडयंत्र कर रहे थे. और यह भी कि इस न्यायिक फैसले को यथोचित संदेह से परे यह भी स्थापित करना था कि आरोपी छ. वि. ज.  सु.अ., २००५, या /और यूं. ए. पी. ए., १९६७ के तहत गैरकानूनी श्रेणी में अधिसूचित किये गए संगठनों के या तो सदस्य थे या फिर ऐसे गैरकानूनी संगठनों की गतिविधियों के लिए उकसाने या उसे आगे बढाने के षडयंत्र में शामिल थे. न्यायाधीश वर्मा का फैसला पूर्वोद्धरित कड़ियों को स्थापित करने के लिए एक कमजोर नींव पर खड़ा विधिक आख्यान पेश करता है.


      न्यायाधीश वर्मा का आख्यान निम्न बिंदुओं पर टिका हुआ है:
      • नारायण सान्याल छ. वि. ज. सु. अ., २००५, और यूं. ए. पी. ए., १९६७ के तहत गैरकानूनी श्रेणी में अधिसूचित किये गए तथा राजद्रोही संगठन सी. पी. आई. (माओवादी) के उच्चतम निर्णायक मंडल, पोलित ब्यूरो के सदस्य हैं. इस को पुष्ट करने के लिए, यह न्यायिक फैसला सी. पी. आई.(माओवादी) के मुखपत्र के बतौर जिन्हें देखा जाता है ऐसी कुछ पत्रिकाओं में छपी सामग्री को और आन्ध्र प्रदेश तथा झारखंड में उनके खिलाफ माओवादी गतिविधियों के चलते दायर मुकदमों को साक्ष्य के बतौर उद्धृत करता है. यह बताया गया कि ऊपर उद्धृत पत्रिकाएँ सहआरोपी पीयूष गुहा के पास से बरामद हुई है जिसे पीयूष गुहा द्वारा यह कहते हुए चुनौती दी गयी है कि इस सामग्री को उनके यहाँ पुलिस द्वारा षडयंत्रपूर्वक रोपित किया गया था. न्यायाधीश ने पुलीस की व्याख्या को बिना कोई सवाल उठाए माना और उसके लिए जब्ती के गवाह अनिल सिंह का बयान आधार बनाया गया और इस पर पियूष गुहा एवं सहआरोपी डॉ. बिनायक सेन द्वारा उठाई गयी इस आपत्ति को नज़रंदाज़ कर दिया गया कि जब्ती के गवाह अनिल सिंह ने यह माना था कि यह बयान इस बिनाह पर थे कि इस संबंध में पुलिस और पियूष गुहा के बीच के संवाद उसके कानों में पडा था. यह भी तब हुआ था जब पियूष गुहा पुलिस की हिरासत में थे, और पुलिस की हिरासत में रहते हुए गुहा द्वारा दिया गया बयान साक्ष्य के रूप में भारतीय साक्ष्य अधिनियम, १८७२ के तहत अमान्य एवं अस्वीकार्य हो जाता है . इसे नजरंदाज न किया जाए कि जब्ती का गवाह अनिल सिंह पुलिस के साथ नहीं था जब वे पियूष गुहा को गिरफ्तार कर रहे थे और उनकी तलाशी ले रहे थे, बल्कि वह एक राहगीर था जिसे पुलिस ने रोका था जब पियूष गुहा पहले ही उनकी हिरासत में था. न्यायाधीश ने नारायण सान्याल को सी. पी. आई.(माओवादी) का सदस्य अन्य राज्यों में चल रहे उन मुकदमों की बिनाह पर माना जिनमें उन्हें अभी तक दोषी पाया जाना बाकी है.
      • फैसला जिन केन्द्रीय मुद्दों को ‘न्याय’ का आधार बनाकर बखान करता है उनमें गिरफ्तारी और जब्त किये गए कुछ लेख , जिनमें उपर उल्लेखित पत्रिकाओं के आलेख तथा तीन खत शामिल हैं ,जो तथाकथित रूप से नारायण सान्याल द्वारा लिखे गए हैं जिन्हें उन्होंने डॉ. बिनायक सेन को सौंपा जब सेन सान्याल से मिलने जेल गए थे. न्यायाधीश ने माना कि ये खत बिनायक सेन के माध्यम से नारायण सान्याल अपने पार्टी के कोमरेडों तक पहुंचाना चाहते थे और इन्हें डॉ. सेन ने पियूष गुहा को सौंपा जो इन खतों को सान्याल के पार्टी कॉमरेडों तक पहुंचाते. यह कथित रूप से इस शृंखला को साबित करता है कि तीनों आरोपी एक षडयंत्रकारी रिश्ते में जुड़े हैं. इस षडयंत्रकारी शृंखला के अनुसार नारायण सान्याल एक राजद्रोही संगठन के नेता हैं जो संगठन  गैरकानूनी संगठन की सूची  में अनुसूचित है और इसलिए  एक प्रतिबंधित संगठन है. डॉ. बिनायक सेन सेन नारायण सान्याल के साथ षड़यंत्र रचाते हुए सान्याल के लिखे खत गुहा के माध्यम से सान्याल के पार्टी कॉमरेडों तक पहुंचाने का कार्य कर रहे थे, इस तरह डॉ. सेन और गुहा दोनों ही राजद्रोही और गैरकानूनी संगठन को मदद पहुंचा रहे थे. इस षडयंत्र की श्रृंखला को  गढ़ते वक्त, न्यायाधीश फोरेंसिक जांच की रिपोर्ट को आधार बनाते है कि ये खत वाकई नारायण सान्याल द्वारा ही लिखे गए हैं, परन्तु उनके पीयूष गुहा के कब्जे से बरामद होने को साबित करते वक्त वे केवल पुलिस अधिकारियों के और अनिल सिंह के बयान को ही आधारभूत साक्ष्य के बतौर ग्राह्य मानते हैं. इस बात को वे सिरे से नज़रंदाज़ करते हैं कि अनिल सिंह की गवाही  को पियूष गुहा खुद चुनौती दे चुके हैं. ७ मई २००७ को जब पीयूष गुहा को मॅजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया तब उनका जो बयान मजिस्ट्रेट के समक्ष दर्ज किया गया उसमें उन्होंने कहा है कि उन्हें १ मई २००७ को महिंद्रा होटल से गिरफ्तार कर लिया गया और ६ दिन तक आँखों पर पट्टी बांधकर अवैध रूप से हिरासत में रखा गया और फिर अंततः ७ मई २००७ को मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किया गया. इस सन्दर्भ में न्यायाधीश ने इस तथ्य को भी नज़रंदाज़ कर दिया है कि गुहा का वही बयान ग्राह्य है जो उन्होंने पहली बार मजिस्ट्रेट के समक्ष उपस्थित होने पर दिया. न्याय्याधीश वर्मा ने कहा है कि गुहा अपने इस बयान के पक्ष में कोई साक्ष्य पेश नहीं कर पायें, इस तरह वे साक्ष्य पेश करने की जिम्मेवारी बचाव पक्ष पर डालते है ना कि अभियोगी पक्ष पर. यह अपने आप में विधि की खराब अवधारणा तथा गलत प्रचलन का उदाहरण पेश करता है. (न ही छ. वि. ज. सु. अ., (२००५), और यूं. ए. पी. ए., (२००४) आरोपी पक्ष पर अपने बचाव के लिए साक्ष्य पेश करने का बोझ लादता है
      • न्यायाधीश ने सर्वोच्च न्यायालय के सामने बिनायक सेन की जमानत की अर्जी के खिलाफ पेश किये गए पुलिस के शपथपत्र और सेशंस न्यायालय में पुलिस की तरफ से पेश आरोप पत्र मेक पुलिस के पक्ष के बीच साफ़ उभरते विरोधाभासों को भी नज़रंदाज़ किया है. सर्वोच्च न्यायालय में पुलिस ने कहा था कि गुहा को उन्होंने महिंद्रा होटल से गिरफ्तार किया गया ( जो आरोप गुहा ने भी अपने साक्ष्य में लगाया है) परन्तु सेशंस न्याय्यालय में पुलिस ने कहा कि उन्होंने गुहा को स्टेशन रोड से गिरफ्तार किया जहाँ उससे उपर उल्लेखित षड्यंत्रकारी फसानेवाले लेख और अन्य सामग्री  जब्ती के गवाह अनिल सिंह की उपस्थिति में कथित रूप से बरामद की गयी. न्यायाधीश वर्मा ने पुलिस के इस कमजोर तर्क को पूरी तरह से मान लिया कि सर्वोच्च न्यायालय में पेश हुए शपथपत्र में यह मुद्रण की गलती रह गयी थी. दरअसल होना तो यह चाहिए कि इस शपथपत्र को तैयार करनेवाले पुलिस अधिकारी पर यह मुकदमा चलाया जाए कि या तो उसने सर्वोच्च न्यायालय में गलत शपथपत्र पेश किया या उसने सेशंस न्यायालय में झूठा बयान शपथपूर्वक पेश किया. दरअसल, गुहा के बयान को स्वीकारने का सीधा अर्थ यह होता कि जब्ती के गवाह अनिल सिंह के बयान को अविश्वसनीय ठहराया जा सकता था और इसी बयान को तो न्यायाधीश ने अपने फैसले का केन्द्रीय आधार बिंदु बनाकर पेश किया था. इसका सीधा असर यह होता कि सभी आरोपियों ,खासकर बिनायक सेन और पीयूष गुहा के खिलाफ बना मुकदमा भरभराकर ढह जाता क्योंकि इन दोनों के खिलाफ कोई ऐसा पुख्ता  सबूत नहीं था जो यह साबित कर पाए कि इन दोनों में से किसी का भी सी. पी. आई. (माओवादी) से सदस्य के बतौर जुड़ाव था या फिर नारायण सान्याल, जो कि न्यायाधीश वर्मा के फैसले के आख्यान का सब से प्रमुख माओवादी चेहरा है, उस से किसी षड़यंत्रकारी संबंध में ये दोनों लिप्त थे.
      • एक बार षड्यंत्र का केन्द्रीय बिंदु और घटना को गढकर न्यायिक आख्यान में बुने जाने के बाद घटना से पूर्व इन तीनों आरोपियों के बीच षड्यंत्रकारी संबंधों के तार, उनके सांझा उद्देश्यों और किए गए कार्यों को स्थापित करना बाकी था. पियूष गुहा के मामले में रायपुर में उनकी यात्राओं की निरंतरता और पश्चिम बंगाल के पुरुलिया जिले में उनके खिलाफ चल रहे एक मुकदमे से सन्दर्भ जोड़कर यह साबित करने की कोशीश की गयी.  न्यायाधीश वर्मा ने इस तथ्य को बिलकुल ही अनदेखा किया कि पुरुलिया के मुकदमे में पियूष गुहा को ६.०५.२००७ के बाद आरोपी बनाया गया था, यह वहीं तारीख है जब उन्हें रायपुर में गिरफ्तार किया गया . इस तथ्य से इस शंका को बल मिलता है कि दोनों राज्यों की पुलिस ने साठगाठ और सोच विचार कर पियूष गुहा का नाम  इस मुकदमे में बाद में पिरोया. न्यायाधीश वर्मा का फैसला इस तथ्य की बहुत ही ‘स्वाभाविक’ रूप से अनदेखी करता है कि पियूष गुहा की रायपुर की निरंतर यात्राओं का ताल्लुक, छत्तीसगढ़ के इलाकों में चल रहे तेंदूपत्ते के व्यापार में उसकी व्यापारिक गतिविधियों से है.
      बिनायक सेन की नारायण सान्याल और उसके राजद्रोही माओवादी लक्ष्यों से मिलीभगत निम्न आधारों पर स्थापित करने की कोशीश की गयी है:
      1.   नारायण सान्याल के तथाकथित मकान मालिक का बयान
      दीपक चौबे ने अपने साक्ष्य में बयान दिया कि उन्होंने नारायण सान्याल को उनकी गिरफ्तारी से कुच्छ समय पहले बिनायक सेन की सिफारिश पर किराएदार के रूप में अपने मकान में जगह दी थी. न्यायाधीश ने इस तथ्य को नज़रंदाज़ किया कि जिस मकान की बात यहाँ की जा रही है वह मकान दीपक चौबे का नहीं है. वे वहाँ अपने साले की बिनाह पर कार्य कर रहे थे. गौरतलब है कि न्यायाधीश ने सेन द्वारा उठायी गयी आपत्ति को सिरे से अनदेखा किया कि चौबे का यह दावा ऐसे सवालों की प्रतिक्रया में सामने आया था जो सवाल अभियोग पक्ष द्वारा इच्छित जवाबों को पाने के लिए पूछे गए थे. न्यायाधीश वर्मा का फैसला, सेन के इस गवाह के संबंध में उठायी गयी आपत्तियों ,कि यह गवाह भारतीय दंड संहिता की धारा १६१ के तहत दिए गए अपने बयान से हट रहा है, इस के प्रति कोई तवज्जो नहीं देता. इस तथ्य को भी कोई जगह यह फैसला नहीं देता कि यह गवाह खुद जिरह के दौरान ये स्वीकार कर चुका है कि कथित रूप से माओवादी नेता जब उसके मकान से  गिरफ्तार हुआ तब पुलिस ने जो उसका बयान पहले लिया था उसे न्यायाधीश के सामने नहीं लाया गया है. इससे यह शक पैदा होता है कि बाद में जो बयान न्यायालय के सामने लाया गया उसमें कितनी सच्चाई है और कितना उसे हेराफेरी कर अभियोग पक्ष की मनगढंत कहानी को मजबूती प्रदान करने योग्य बनाया गया है. न्यायाधीश वर्मा ने सेन के इस प्रतिवाद को सिरे से खारिज किया कि चौबे का बयान दबाव में दिया गया है क्योंकि पुलिस ने यह धमकी दी थी कि उनके घर से हुई इस गिरफ्तारी के सन्दर्भ में उन पर भी मुकदमा ठोका जाएगा. यह फैसला पुलिस के खुदके बयान में आए अंतर्विरोध को भी गंभीरता से नहीं लेता कि नारायण सान्याल को आन्ध्र प्रदेश के भद्रचलम से गिरफ्तार किया गया था जिसके चलते आन्ध्र प्रदेश पुलिस के अधिकारियों से साक्ष्य लिए गए थे.


      2. बिनायक सेन की कैदी नारायण सान्याल से अठारह महीनों में तैंतीस मुलाकातें

      न्यायाधीश ने बिना कोई कारण बताये सेन के इस तर्क की उपेक्षा की कि  जब वे अभियोगाधीन कैदी के परिवार के अनुरोध पर एक अस्वस्थ अभियोगाधीन कैदी के स्वास्थ्य एवं कानूनी मुद्दों पर काम कर रहे थे तो वे एक मानवाधिकार कार्यकर्ता व चिकित्सक के रूप में अपने कर्त्तव्य मात्र का निर्वहन कर रहे थे. न्यायाधीश महोदय ने बचाव पक्ष द्वारा प्रस्तुत उन दस्तावेजों पर विचार ही नहीं किया जो दर्शाते थे कि  सेन के पास इन जेल मुलाकातों के लिए वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक की अनुमति थी.  इसके बजाय , न्यायाधीश वर्मा का फैसला यह पेचीदा तर्क प्रस्तुत करता है कि सान्याल की भाभी (बुला सान्याल ) के द्वारा इस सिलसिले में  बिनायक सेन को किये गए कईं फ़ोन काल्स, उनके और नारायण सान्याल के बीच  षड्यंत्रपूर्ण सम्बन्ध की पुष्टि करते है जबकि सच्चाई यह है कि बुला सान्याल एक गृहिणी हैं और उनका किसी भी प्रकार की माओवादी/ विधिविरुद्ध  गतिविधि से कोई भी सम्बन्ध नहीं है .चूंकि अभियोग पक्ष ऐसा एक भी जेल अधिकारी या साक्षी प्रस्तुत करने में नितांत असफल रहा जो जेल मुलाकातों में नारायण सान्याल द्वारा बिनायक सेन  को कोई भी लिखित अथवा मौखिक ,कागज़ अथवा सन्देश प्रेषित किये जाने की गवाही दे, फैसले में जेल की कुछ प्रविष्टियों में सेन के सान्याल के  रिश्तेदार के रूप में उल्लेख को लेकर बात का बतंगड़ बनाया गया है और बचाव पक्ष की इस दलील को बिलकुल नज़रंदाज़ कर दिया गया है कि ये प्रविष्टियाँ न तो मुलाकाती और न जिससे मुलाक़ात की जा रही है उसके द्वारा बल्कि जेल अधिकारियों  द्वारा भरी जाती थीं, जैसा कि रेकॉर्ड्स से स्वतः स्पष्ट है. इसके उलट, बिनायक सेन द्वारा सान्याल से मुलाक़ात का आवेदन करते हुए जेल अधिकारियों को प्रेषित  सभी आवेदन पत्र अपने संगठन पी.यू.सी.एल.(नागरिक स्वतंत्रता और प्रजातांत्रिक  अधिकारों की रक्षा हेतु प्रसिद्द सर्वोदयी नेता जयप्रकाश नारायण द्वारा स्थापित संगठन ) के लैटरहैड पर ही लिखे गए थे. इन मुलाकातों  के लिए जेल  अधिकारियों से यथावत स्वीकृति मिली थी और ये सभी  मुलाकातें  उनके द्वारा देखी और सुनी गयी थीं .

      ३. बिनायक सेन का भा.क.पा.(माओवादी) के साथ सम्बन्ध

      ३.१ बिनायक सेन का भा.क.पा. (माओवादी) के साथ नज़दीकी सम्बन्ध था, इस बात को पुलिस अधिकारियों द्वारा अपर्याप्त साक्ष्यों के आधार पर स्थापित किया गया. उनके द्वारा दावा किया गया कि सेन और उनकी पत्नी इलीना सेन ने कथित  हार्डकोर माओवादी शंकर सिंह और अमिता श्रीवास्तव की मदद की. सेन ने इस बात से कभी इनकार नहीं किया कि शंकर रूपांतर -उनकी पत्नी इलीना द्वारा स्थापित गैर सरकारी संगठन -का कर्मचारी था. न ही उन्होंने इस बात से मतभेद व्यक्त किया कि वे और उनकी पत्नी इलीना अमिता श्रीवास्तव  को जानते थे जिन्हें इलीना ने एक दोस्त की अनुशंसा पर विद्यालय में नौकरी पाने में मदद की थी. लेकिन न्यायाधीश ने कोई अन्य साक्ष्य या सबूत ना होते हुए भी सिर्फ पुलिस की इस  बात पर यकीन किया कि शंकर और अमिता हार्डकोर  माओवादी थे .

      ३.२ न्यायाधीश वर्मा ने पुलिस द्वारा बताई गयी इस सुनी सुनाई बात के आधार पर भी गलत निष्कर्ष निकाला कि एक मालती जो रूपांतर की कर्मचारी रही थी, ही दरअसल शांतिप्रिया यानि रायपुर की  दूसरी अदालत में चले मुकदमे में दस साल की सज़ा भुगत रहे एक माओवादी नेता की पत्नी है जिसका छद्मनाम मालती है. न्यायाधीश ने बचाव पक्ष द्वारा रिकोर्ड पर प्रस्तुत इस साक्ष्य की जांच या उल्लेख तक नहीं किया कि रूपांतर की कर्मचारी मालती दरअसल मालती जाधव है जिसका पता बचाव पक्ष के साक्ष्य प्रहलाद साहू द्वारा उपलब्ध कराया गया था .

      ३.३ न्यायाधीश वर्मा के आख्यान में पुलिस द्वारा उद्धृत 'सुनी सुनाई 'बातों के प्रति विशेष मोह नज़र आता है चूंकि उन्होंने किसी गवाह या सबूत के ज़रिये परिपुष्टि किये बिना पुलिस अधिकारियों  विजय ठाकुर और शेर सिंह के इस बेबुनियाद आरोप पर आँख मूँद कर यकीन कर लिया है कि बिनायक सेन ,इलीना सेन और अन्य पी.यू.सी. एल.सदस्य और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने माओवादियों के अपने इलाकों में उनकी बैठकों में भाग लिया था .ये अधिकारी सेक्शन १६१ के बयान की सीमा से भी आगे गए और आरोप पत्र के साथ नत्थी न किये गए दस्तावेज़ प्रस्तुत किये और इस सन्दर्भ में बचाव पक्ष के  सभी ऐतराजों  को न्यायाधीश द्वारा खारिज कर दिया गया .

      ३.४ लेकिन एक रोपित पत्र, आर्टिकल ए.३७ न्यायाधीश वर्मा के आख्यान में महत्त्वपूर्ण हो उठता है. यह अहस्ताक्षरित पत्र कथित रूप से सी.पी.आई.(माओवादी)की केंद्रीय समिति द्वारा बिनायक सेन को लिखा गया है, जिसके बारे में पुलिस का दावा है कि वह उसने सेन के घर की तलाशी के दौरान जब्त किया है. किन्तु इस पत्र का जब्ती की सूची में कोई उल्लेख नहीं है और इस पत्र पर न तो सेन के और न ही जांच अधिकारियों के और न ही तलाशी के गवाहों के हस्ताक्षर हैं .यह कथित पत्र सेन को अदालत में प्राप्त आरोप पत्र का भी हिस्सा नहीं था. लेकिन न्यायाधीश वर्मा ने इस जाहिर से तथ्य को अनदेखा किया कि यह साक्ष्य रोपित है और जांच अधिकारियों बी. एस. जाग्रति और बी. बी. एस. राजपूत की इस वाहियात सफाई को मान लिया कि आर्टिकल ए. ३७ संभवतः दूसरे आर्टिकल के साथ चिपक गया था और इसलिए न तो सेन और न ही जांच अधिकारियों और न ही तलाशी के गवाहों के इस पर हस्ताक्षर हो पाए. ऐसे में यह आश्चर्यजनक नहीं कि इस सन्दर्भ में न्यायाधीश ने बचाव के साक्ष्यों अमित बनर्जी व महेश महोले की वैध गवाहियों की उपेक्षा की.
      ३.५ हालांकि फैसले के विचारधारात्मक पूर्वाग्रहों की कलई तब खुल जाती है जब यह सर्वोच्च न्यायालय के बुद्धिमत्तापूर्ण प्रकाशन, जो सेन द्वारा मुकदमे के दौरान दर्ज किया गया था के एक गवाह के.आर.पिस्दा, जो दांतेवाडा जिले के महज जिला कलेक्टर  थे, की गवाही को स्वीकार करता है कि सलवा जुडूम माओवादियों के अत्याचारों के विरुद्ध आदिवासियों का एक शांतिपूर्ण और स्वतःस्फूर्त आन्दोलन था  और राज्य द्वारा अपनी निगरानी में चलाया गया  प्रायोजित क्रूर और हिंसक ऑपरेशन नहीं था .आगे फैसले में न्यायाधीश वर्मा इस ओर भी चालाकी भरा संकेत करते हैं कि बिनायक सेन द्वारा अवैधानिक ,दमनकारी,क्रूर तथा हिंसा और फसाद में लिप्त निगरानी ओपरेशन का एक मानवाधिकार कार्यकर्ता के बतौर सैद्धांतिक विरोध उन्हें माओवादियों की श्रेणी में ला खडा करता है जिनके खिलाफ सलवा जुडूम कार्यरत था .

      बचाव पक्ष द्वारा उपलब्ध करवाए गए साक्ष्यों का संज्ञान न लेना


      बिनायक सेन द्वारा दिए गए बयानों ,साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत किये गए उनके मानवाधिकार कार्यकर्ता के रूप में किये गए कार्यों और उन अखबार की रिपोर्टों -जिनमें तत्कालीन डी.जी.पी. द्वारा मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को देख लेने की धमकी छपी थी और जो बचाव पक्ष द्वारा प्रस्तुत की गयी थीं -इन सब पर न्यायाधीश द्वारा विचार ही नहीं किया गया और ऐसा प्रतीत होता है कि न्यायाधीश ने सिर्फ उन्हीं साक्ष्यों की व्याख्याओं पर भरोसा किया जो अभियोग पक्ष के पक्ष को मजबूत करती थी .ऐसा करते हुए (अभियोग पक्ष के तर्कों/साक्ष्यों के )अंतर्विरोधों और विसंगतियों पर वाजिब विचार भी नहीं किया गया ,बचाव पक्ष की आपत्तियों और सेन द्वारा प्रस्तुत साक्ष्यों की उपेक्षा की गयी और यहाँ तक कि स्थापित विधिक सिद्धांतों पर भी विचार नहीं किया गया जो बचाव पक्ष ने अपने तर्कों में प्रस्तुत किये थे .

      'राजद्रोह'के विधिक प्रावधान का राजनीतिक हथियार के रूप में दुरुपयोग

      इस मुकदमे में बिनायक सेन और अन्य अभियुक्तों के विरुद्ध राजद्रोह का आख्यान गढ़ते हुए सेशंस कोर्ट के इस फैसले ने राजद्रोह के मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा स्थापित विधिक सिद्धांतों का उल्लंघन किया है. केदारनाथ सिंह विरुद्ध बिहार राज्य मुकदमे में सर्वोच्च न्यायालय ने यह माना है कि भारतीय दंड संहिता में राजद्रोह के प्रावधान पर भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त भाषण और अभिव्यक्ति के मूलभूत अधिकार के सन्दर्भ में पुनर्विचार किया जाना चाहिए.  इस सन्दर्भ में सर्वोच्च न्यायालय ने माना है कि राजद्रोह के आरोप, जिसे राज्य के विरूद्ध विद्रोह भड़काने के रूप में परिभाषित किया गया है, को अपराध के रूप में तभी स्वीकार किया जाना चाहिए जब यह कथित विद्रोह प्रत्यक्ष हिंसा भड़काने वाला अथवा गंभीर सामाजिक अराजकता की ओर ले जाने वाला हो.  इससे कम किसी भी वक्तव्य अथवा कृत्य को राजद्रोह के रूप में नहीं विचारित किया जाना चाहिए. बिनायक सेन एवं अन्य के विरुद्ध  मुकदमे में सेशंस कोर्ट का फैसला यह स्थापित करने में असफल रहा है कि अभियुक्तों के शब्द अथवा कृत्य प्रत्यक्ष हिंसा को उकसाने वाले थे अथवा  गंभीर सामाजिक अराजकता पैदा कर सकते थे . यदि यह बिना संदेह के स्थापित कर भी  दिया गया होता  कि बिनायक सेन ने नारायण सान्याल के पत्र पीयूष गुहा तक पहुंचाए ,या यह कि पीयूष गुहा ये पत्र सी.पी.आई.(माओवादी )के अन्य सदस्यों तक पहुंचाने वाले थे या यह कि नारायण सान्याल सी.पी.आई. (माओवादी)के पोलित ब्यूरो सदस्य थे तब भी(मुकदमे की ) स्थिति यही रहती .

      इलीना सेन sen.ilina@gmail.com 
      सुधा भारद्वाज advocatesudhabharadwaj@gmail.com
      कविता श्रीवास्तव  kavisriv@gmail.com
      
      translation by himanshu/pragnya/pramod
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      लखनऊ में पुनः हुआ बिनायक सेन के समर्थन में प्रदर्शन