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देश और द्रोह का सवाल

विनोद वर्मा विनोद वर्मा | मंगलवार, 28 दिसम्बर 2010, 16:25 IST
केंद्र में सत्तारूढ़ दल का नेतृत्व कर रही कांग्रेस और प्रमुख विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी के अलावा लगभग सारा देश छत्तीसगढ़ की एक अदालत के इस फ़ैसले पर चकित है कि बिनायक सेन को देशद्रोह के आरोप में आजीवन कारावास की सज़ा भुगतनी होगी.
भाजपा के लिए इस फ़ैसले को सही ठहराने के लिए इतना पर्याप्त है कि यह सज़ा उनकी पार्टी की सरकार के जनसुरक्षा क़ानून के तहत सुनाई गई है.

कांग्रेस को शायद यह लगता होगा कि इस फ़ैसले की आलोचना से वह अपने गृहमंत्री पी चिदंबरम के ख़िलाफ़ खड़ी दिखेगी तो कथित तौर पर नक्सलियों या माओवादियों के ख़िलाफ़ आरपार की लड़ाई लड़ रहे हैं.
बिनायक सेन पर ख़ुद नक्सली या माओवादी होने का आरोप नहीं है. कथित तौर पर उनकी मदद करने का आरोप है.
इससे पहले दिल्ली की एक अदालत ने सुपरिचित लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता अरूंधति राय और कश्मीर के अलगाववादी नेता सैयद अली शाह गिलानी के ख़िलाफ़ देशद्रोह का मुक़दमा दर्ज करवाया है.
यह कौन सा देश है जिसके ख़िलाफ़ द्रोह के लिए अदालतों को बिनायक सेन दोषी दिखाई दे रहे हैं और अरूंधति राय कटघरे में खड़ी की जा रही हैं.
क्या यह वही देश है जहाँ दूरसंचार मंत्री पर 1.76 लाख करोड़ के घोटाले का आरोप है और इस घोटाले पर प्रधानमंत्री की चुप्पी पर सर्वोच्च न्यायालय को सवाल उठाना पड़ा है? जहाँ एक छोटे से राज्य के मुख्यमंत्री पर चंद महीनों के कार्यकाल के दौरान चार हज़ार करोड़ के घपले का आरोप है जहाँ एक और छोटे राज्य की सरकार के ख़िलाफ़ अदालत ने फ़ैसला दिया है कि उन्होंने एक लाख रुपए की एक कंपनी को कई सौ करोड़ रुपए की कंपनी बनने में सहायता दी?
या जहाँ एक राज्य की मुख्य सचिव रहीं अधिकारी को ज़मीनों के घोटाले के लिए सज़ा सुनाई जा रही और कई आईएएस अधिकारियों के यहाँ छापे में करोड़ों की संपत्ति का पता चल रहा है?
क्या यह वही देश है जहाँ एक कॉर्पोरेट दलाल की फ़ोन पर हुई बातचीत बताती है कि वह कॉर्पोरेट कंपनियों की पसंद के व्यक्ति को एक ख़ास मंत्रालय में बिठाने का इंतज़ाम कर सकती है और इसके लिए नामधारी पत्रकारों से अपनी पसंद की बातें कहलवा और लिखवा सकती है.
या यह उसे देश के ख़िलाफ़ द्रोह है जहाँ नकली दवा का कारोबार धड़ल्ले से हो रहा है, जहाँ सिंथेटिक दूध और खोवा बनाया जा रहा है? या उस देश के ख़िलाफ़ जहाँ केद्रीय गृहसचिव को यह बयान देना पड़ रहा है कि देश में पुलिस का एक सिपाही भी बिना घूस दिन भर्ती नहीं होता?
खेलों के आयोजन के लिए निकाले गए जनता के टैक्स के पैसों में सैकड़ों करोड़ों रुपयों का घोटाला करके और आयोजन से पहले की अफ़रातफ़री से कम से कम 54 देशों के बीच देश की फ़ज़ीहत करवाने वाले क्या देश का हित कर रहे थे?
ऐसे अनगिनत सवाल हैं लेकिन मूलभूत सवाल यह है कि देश क्या है?
लोकतंत्र में देश लोक यानी यहाँ रह रहे लोगों से मिलकर बनता है या केंद्र और दिल्ली सहित 28 राज्यों में शासन कर रही सरकारों को देश मान लिया जाए?
क्या इन सरकारों की ग़लत नीतियों की सार्वजनिक चर्चा और उनके ख़िलाफ़ लोगों को जागरूक बनाना भी देश के ख़िलाफ़ द्रोह माना जाना चाहिए?
नक्सली या माओवादियों की हिंसा का समर्थन किसी भी सूरत में नहीं किया जा सकता. उसका समर्थन पीयूसीएल भी नहीं करता, बिनायक सेन जिसके उपाध्यक्ष हैं. उस हिंसा का समर्थन अरूंधति राय भी नहीं करतीं जिन्हें देश की सरकारें नक्सली समर्थक घोषित कर चुकी हैं. हिंसा का समर्थन अब कश्मीर के अलगाववादी नेता भी नहीं करते, जिनके साथ खड़े होने के लिए अरूंधति कटघरे में हैं.
देश की राजनीतिक नाकारापन से देश का एक बड़ा हिस्सा अभी भी बिजली, पानी, शिक्षा और चिकित्सा जैसी मूलभूत सुविधाओं से वंचित है और ज़्यादातर उन्हीं इलाक़ों में नक्सली सक्रिय हैं. आज़ादी के छह दशकों के बाद भी अगर आबादी के एक बड़े हिस्से को मूलभूत सुविधाएँ नहीं मिल पाईं हैं तो इस दौरान वहाँ शासन कर रहे राजनीतिक दल क्या देश हित कर रहे थे?
अन्याय और शोषण के विरोध का समर्थन करने वाले लोगों की संख्या अच्छी ख़ासी है. वे प्रकारांतर से नक्सलियों के साथ खड़े हुए दिख सकते हैं. कश्मीर के लोगों की राय सुनने के हिमायती भी कम नहीं हैं और वे देश के विभाजन के समर्थन के रुप में देखे जा सकते हैं.
क्या ऐसे सब लोगों को अब देशद्रोही घोषित हो जाने के लिए तैयार होना चाहिए?

टिप्पणियाँटिप्पणी लिखें

  • 1. 17:32 IST, 28 दिसम्बर 2010 Gaurav Shrivastava:
    विनोद जी, अरुंधति राय और डॉ. बिनायक सेन की तुलना मत कीजिए. अरूंधति कह रही हैं कि कश्मीर भारत का हिस्सा नहीं है जो एक तरह से पाकिस्तान और आतंकवाद का समर्थन करने जैसा है. बिनायक सेन अलग हैं, उन्होंने भारत की अखंडता पर कभी सवाल खड़े नहीं किए. जहाँ तक देश का सवाल है तो मैं आपसे सहमत हूँ. मैं अक्सर सोचता हूँ कि अगर भगत सिंह को पता होता कि उनके बलिदान से मिली आज़ादी वाले देश में राजा, कलमाड़ी या ऐसे बाबू पैदा होंगे जो घूस मांगेंगे तो वे कोई दूसरा रास्ता चुनते. जब हम अपने आसपास की घटनाओं पर नज़र डालते हैं तो असहाय महसूस करते हैं. कांग्रेस ने तो जनता के साथ वैसा ही बर्ताव किया है जैसा 1947 से पहले ब्रिटिश करते थे. आप बड़े घोटालों की बात कर रहे हैं. बंगलौर जैसे शहर में तो छोटे अपराधों का भी नोटिस नहीं लिया जा रहा है. शायद सभी बड़े शहरों में ऐसा हो रहा होगा. सवाल यह है कि इसे बदलने की कोशिश कौन कर रहा है?
  • 2. 18:07 IST, 28 दिसम्बर 2010 sudhir:
    काफ़ी अच्छे सवाल उठाए हैं आपने. बिना जनांदोलनों के ऐसे सवाल केवल सवाल रह जाएँगे. कोई हल नहीं निकलेगा.
  • 3. 18:21 IST, 28 दिसम्बर 2010 B.K.NAIK:
    आपने सही कहा. तथाकथित लोकतांत्रिक सरकारों की आलोचना को देशद्रोह माना जा रहा है. आप जैसे मीडिया वालों से ही कुछ उम्मीद बची है जो अपना ज़मीर बेच नहीं चुके हैं.
  • 4. 18:21 IST, 28 दिसम्बर 2010 krishna:
    एकदम सही. जो दोषी हैं वो तो सुरक्षित हैं और जो लोगों को जागृत करने की कोशिश कर रहे हैं वो जेल भेजे जा रहे हैं.
  • 5. 18:55 IST, 28 दिसम्बर 2010 हिमांशु:
    श्श्श्! अगर गृहमंत्री जी या छत्तीसगढ़ के माननीय मुख्यमंत्री जी ने यह सब पढ़ लिया तो आपकी खैर नहीं. देश के 543 माननीय (जिसमें हर चौथा अपराधी है) भी आपको घसीट लेंगे. लोकतंत्र में लोक की जगह जिस तेज़ी से कम होती जा रही है, उसमें विरोध करने वाले हर व्यक्ति को नक्सली और आईएसआई का एजेंट बता कर सरकार लोकतंत्र को एक ताबूत में बदलती चली जा रही है. जिसमें इस तरह के फ़ैसले कील जैसे हैं.
  • 6. 19:05 IST, 28 दिसम्बर 2010 SHABBIR KHANNA,RIYADH,SAUDIA ARABIAs:
    वाह विनोद जी, आपको सलाम करना चाहता हूँ क्योंकि आपने कितना सच लिखा है. काश आपका लिखा वो जज साहिब पढ़ पाते जिन्होंने बिनायक सेन को देशद्राही घोषित किया है. सच यह है कि देश के वो सारे नेता देशद्रोही हैं जो जनता का ख़ून चूसकर ज़िंदा हैं और अपने आपको देश का वफ़ादार कहते हैं. डॉ बिनायक सेन और अरूंधति राय देशद्रोही नहीं हैं.
  • 7. 19:10 IST, 28 दिसम्बर 2010 Vipul Seth:
    बहुत ही अच्छा और संतुलित लिखा है आपने.
  • 8. 19:28 IST, 28 दिसम्बर 2010 प्रणय यादव :
    विनोद जी, आप साफ़ लिखते हैं और सच लिखते हैं ये तो मैं पहले से जानता हूं लेकिन इसको पढ़कर ऐसा लगा कि थोड़ा भावनात्मक होकर भी लिखते हैं. बिनायक सेन के बारे में जो थोड़ा बहुत जानता हूं वो भी उसी के सहारे जो आप जैसे प्रबुद्ध लोगों ने लिखा. उसके आधार पर मैं इस बात पर सहमत हो सकता हूं कि बिनायक सेन को अदालत ने जो सजा सुनाई उसमें खामियाँ हो सकती हैं लेकिन इन खामियों को सुधारने के लिए बड़ी अदालत भी है अपने देश में. विनायक सेन के साथ लोगों की सहानुभूति है उनके ख़िलाफ़ अगर अन्याय हुआ तो तो सभी को आवाज़ उठानी चाहिए. लेकिन आपने अरुंधति राय का नाम इसी श्रेणी में कैसे जोड़ दिया इस पर थोड़ा आश्चर्य हुआ. जो उदाहरण आपने दिए वो भी इससे मेल नहीं खाते क्योंकि ये तथ्य पढ़ने के बाद एक टीस पैदा कर सकते हैं. देश के क़ानून में सुधार की ज़रुरत पैदा कर सकते हैं लेकिन इनके आधार पर ये कहना ठीक नहीं है कि अंरुधति राय बड़ी देशभक्त हैं और आम लोगों की पैरोकार हैं इसलिए उनके ख़िलाफ़ दर्ज मामला ग़लत है. सोचिए अरुंधति राय ने जो कहा वो किसी और देश में ऐसा कहने की हिम्मत कर पातीं? दुनिया के किसी भी देश में ऐसी आजादी उन्हें मिलती? हमारे देश के क़ानून में ये भी बड़ी कमी है कि जिसको जो चाहे बोलने की आजादी है. बहुत से लोग, जिन्हें आप भी जानते हैं, सचमुच आम लोगों के हित के कामों में लगे हैं और बिना किसी शोर शराबे के. कुछ लोग जो करते कम हैं लिखते और बोलते ज्यादा हैं उनसे भी देश को बड़ा खतरा है. इसलिए जो उदाहरण आपने दिए वो देशद्रोह की श्रेणी में ही आते हैं पर इसके लिए कानून में बदलाव की ज़रुरत है लेकिन जो अरुंधति राय ने कहा वो देशद्रोह की श्रेणी में ही आता है इसलिए उसकी कठोरतम सजा मिलनी ही चाहिए. रही बात बिनायक सेन की, तो मुझे उम्मीद है कि उन्हें देश की बड़ी अदालत से न्याय मिलेगा, जरुर मिलेगा.
  • 9. 19:52 IST, 28 दिसम्बर 2010 shradhanandsharma:
    किसी भी तरह की हिंसा स्वीकार नहीं होनी चाहिए चाहे वो किसी भी ओर से हो.
  • 10. 20:44 IST, 28 दिसम्बर 2010 Dharampal verma gharsana:
    विनोद जी इस शानदार लेख के लिए बधाई.
  • 11. 22:00 IST, 28 दिसम्बर 2010 SHABBIR KHANNA,RIYADH,SAUDIA ARABIA:
    बीबीसी को चाहिए इस बार इसी मसले पर बहस कराए और इस बहस में विनोद जी को भी शामिल करे. विनोद जी आपने छोटे से लेख में ही पूरे भारत की सच्ची तस्वीर लिख दी है. एक बार नहीं इस लेख को बार-बार पढ़ने पर जी नहीं भरता और मन फिर पढ़ने को करता है.
  • 12. 22:26 IST, 28 दिसम्बर 2010 S.S.HUSAIN:
    रकीबोँ ने रपट लिखवाई है जा जा के थाने में, कि अकबर नाम लेता है खुदा का इस ज़माने में.
  • 13. 00:24 IST, 29 दिसम्बर 2010 Mohammad Athar Khan Faizabad Bharat:
    बिलकुल सही लिखा आपने, लेकिन ऐसा लगता है आप लिखने के अलावा और हम पढ़ने के अलावा कुछ कर नहीं सकते. जब व्यवस्था सही न हो तो उसका विरोध तो होना ही चाहिए. जो लोग विरोध कर रहे हैं वो दूसरों पर एहसान कर रहे हैं क्योंकि अगर व्यवस्था बदली तो लाभ सब का होगा लेकिन कीमत सिर्फ विरोध करने वालों को ही चुकानी पड़ती है. कश्मीर की आज़ादी सिर्फ अलगाववादी ही नहीं बल्कि कश्मीर की जनता चाहती है. भारत सरकार को जनभावनाओं को भी देखना चाहिए. ताकत के बल पर कब तक कश्मीर को अभिन्न अंग बनाए रखेगें और अगर कश्मीर अभिन्न अंग है तो आजाद कश्मीर को क्यों छोड़ रखा है.
  • 14. 01:01 IST, 29 दिसम्बर 2010 rohit panwar:
    विनोद जी वास्तव में यह हिंदुस्तान का फलता फूलता परिपक्व लोकतंत्र है ऐसा हमेशा से होता रहा है की आमजन के सरोकार से जुड़ी बातों को हाशिए पर धकेला जाता है लेकिन इन सबके बीच हमें गुरुर है की हम इस दुनिया के सबसे बड़े, परिपक्व लोकतंत्र के वासी है. अभिव्यक्ति और जीने की आज़ादी आम लोगों को देना किताबी बातें नजर आती हैं जोकि दुर्भाग्यपूर्ण है. 
  • 15. 01:40 IST, 29 दिसम्बर 2010 गुंजन:
    क्यों मानूं आपकी बात मैं? आप कुछ नया तो कह नहीं रहे हैं. वही निराशापूर्ण बातें जो मैं बचपन से सुनता आ रहा हूं. आपको मानना ही होगा कि वो सभी अपराधी हैं जो इस धरती के कानून के विरुद्ध कार्य करते हैं. अरुंधती और गिलानी अपराधी हैं क्योंकि वो इस देश की संप्रभुता पर प्रश्नचिन्ह लगा रहे हैं और बिनायक जैसे लोग भी अपराधी हैं क्योंकि वो एसे लोगों की जान-बूझकर सहायता कर रहे हैं. अगर वो थोड़े कम अपराधी भी हैं तो मुझे अंतर नहीं पड़ता. किसी भी देश के बनने में समय लगता है, और थोड़े बहुत उदाहरण बनने ही चाहिए. नेता और नौकरशाह बड़े अपराधी हैं और ये छोटे बहुत ही बेतुका सा तर्क है.
  • 16. 06:50 IST, 29 दिसम्बर 2010 Dr.Lal Ratnakar:
    'देशद्रोह' बहुत अटपटा सा मामला है. उस देश के लिए द्रोह जहां लोग देश को लूट रहे हैं या जो इस देश में लुट रहा है? बिनायक सेन को अपराधी बना देना माननीय जज साहब के लिए इसलिए महंगा पड़ रहा है क्योंकि बिनायक सेन जी की एक लॉबी है जिनके जरिये देश ही नहीं विदेशों में भी चर्चा हो रही है. लेकिन इस देश में कई जज साहब न जाने कितने 'अपराधियों' को खुलकर अपराध कराने में मदद करते हैं. जबकि न जाने कितने 'निरीह' को सज़ा देते हैं. जिन्हें इसी देश का आम आदमी माननीय जज साहब को भगवान और अल्लाह मानकर सिर-माथे लगा लेता है. ऐसे असंख्य मामलों का हवाला उपलब्ध है जिस पर समय-समय पर माननीय जज साहब भी टिप्पणी करते रहते हैं.
    संभवतः यह सब देशद्रोह की श्रेणी में नहीं आता होगा क्योंकि उन्हें 'न्याय' करने का हक़ दिया गया है. श्री बिनायक सेन को वह सब कुछ करने का हक़ किसने दिया. चले थे जनांदोलन करने. जिस देश का 'न्यायदाता' न्याय न करता हो और मामले को लटका के रखता हो और वहीं इस मामले में जो भी न्याय किया गया है वह भले ही दुनिया को 'अन्याय' लग रहा हो पर कर तो दिया. वाह, आप ने भी कैसा सवाल उठा दिया. लगता है कि अभी आप पत्रकारिता के सरकारी लुत्फ़ के 'मुरीद' नहीं हुए हैं. अभी हाल ही में कई पत्रकारों के नाम ज़ाहिर हुए हैं. लेकिन इतना हाय तौबा क्यों मचा रखी है? ऊपर वाले माननीय जज साहब ज़मानत तो दे ही देंगे यदि ऐसा लगता है की भारी अपराध है ज़मानत नहीं मिलेगी तो उससे भी ऊपर वाले माननीय जज साहब जो नीचे वालों की सारी हरकतें जानते हैं वह ज़मानत दे देंगे. विनोद जी आपकी चिंता वाजिब है इस देश के लिए अगला ब्लॉग संभल कर लिखियेगा 'यह देश है वीर जवानों का, बलवानों का, धनवानों का. जयहिंद.
  • 17. 10:23 IST, 29 दिसम्बर 2010 Mukund Mishra:
    आपसे ये जानकर की कश्मीर के अलगाववादी भी हिंसा का समर्थन नहीं करते आश्चर्य हुआ. बढ़िया होता अगर आपने उदाहरण में आज़म खां को भी शामिल कर लिया होता. आख़िर उन्होंने भी तो कश्मीर पर ही सवाल उठाया था. मैं आपकी बात से सहमत हूँ की इस देश में अनगिनत समस्याएं है. घोटालों की संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है. इसका ये मतलब तो नहीं की हिंसा का समर्थन चाहे वो परोक्ष रूप से ही क्यों न हो सही मान लिया जाये...
  • 18. 10:47 IST, 29 दिसम्बर 2010 naval joshi:
    विनोद वर्माजी का देशद्रोह पर लिखा गया ब्लॉग लाजवाब है.विनोदजी ने जो तर्क दिए है उससे अधिक महत्वपूर्ण बात यहां ये है कि सही बात सही वक्त पर सही व्यक्ति ने की है.यही बात अरूंधति राय द्धारा भी कही गई है लेकिन उसमें ऐसी ताज़गी ,गंभीरता और वैसी निष्पक्षता नहीं है जो इस ब्लॉग में है.व्यवस्था को देश का पर्यायवाची कहने वालों की कभी भी कमी नहीं रही है.लोगों ने तो 'इंदिरा इज़ इंडिया' तक कहा.लेकिन कोई भी व्यवस्था देश नहीं होती है.देश की बर्बादी का कारण व्यवस्था रही है. ये इतिहास में कोई भी देख सकता है.मुक़दमा उन पर चलना चाहिए.लेकिन अरूंधति पर विनोदजी के आंकलन से सहमत होना कठिन है क्योंकि वो अलगाववाद का समर्थन करती है.ये देश के साथ धोख़ा है.जितने कारण उन्होंने कश्मीर के अलग होने के दिए है तो हज़ारों कारण है जो बताते है कि कश्मीर भारत का हिस्सा है.जब भी कोई व्यक्ति कश्मीर पर बोलता है तो उसमें उसके निहित स्वार्थ छिपे होते है.

  • 19. 11:07 IST, 29 दिसम्बर 2010 Athar:
    आज़ादी के बाद से कुछ भी नहीं बदला है. बस नाम बदल गए है.पहले नवाब और राजा ज़ुल्म करते थे अब राजनीतिज्ञ, न्यायपालिका और नौकरशाह कर रहे हैं.
  • 20. 11:35 IST, 29 दिसम्बर 2010 BALWANT SINGH:
    वाह विनोद जी ! हाँ यह वही लोकतंत्र है जहाँ तथाकथित तानाशाही की ओर बढ़ते कदम नज़र आ रहे हैं? यह वही लोकतंत्र है जो की एक दोहरे मापदंडों के मकड़जाल में उलझा हुआ नज़र आता है? यह वही लोकतंत्र जहाँ कानून रसूख वालों की जेब में रहता और जिनकी पहुँच कहीं तक भी नहीं है. उन पर तमाम नियम, क़ानून और धाराएँ लागू होतीं हैं ? वरना एक बिना हस्ताक्षर हुए कागज़ के टुकड़े को सबूत मान कर क़ानून इतना बलशाली हो गया कि रातों रात फैसला हो गया? जबकि असली डाकू, लुटेरे देश की इज्ज़त से खिलवाड़ करने वाले घोटालेबाज़ जनप्रतिनिधि तमाम सबूतों के बावजूद निडर होकर शाही काफिलों में अब तक घूम रहे हैं! अरबों के घोटाले किये फिर भी तीन साल बाद तक कानून सोया रहा? अब छापेमारी हो रही है? कितना हास्यस्पद है कि बड़े लुटेरों को सबूतों को मिटाने, उनसे छेड़छाड़ करने के लिए वर्षों का समय दे दिया जाता है! डाक्टर बिनायक ने गरीबों के लिए काम किया और इसी सरकार ने उन्हें इनाम और पदक भी दिए! ग़रीबों से हमदर्दी ही इनका गुनाह है! नहीं तो टोकरियों भर सबूत भी पहुँच वालों का कुछ नहीं बिगाड़ पाए, फ़ैसले सुरक्षित रख लिए गए ! और यहाँ मीडिया की भूमिका भी हास्यस्पद है. प्रेस ने तिल का ताड़ बनाया और अपने कर्तव्य का निर्वाह सही तरह से नहीं किया! मैं यहाँ ये सब इसलिए नहीं लिख रहा हूँ कि मैं डाक्टर सेन का हिमायती हूँ या उनसे हमदर्दी रखता हूँ बल्कि मेरी भी पीड़ा विनोद जी जैसी है कि लोकतंत्र के चलते न्याय और क़ानून सब के लिए एक जैसा क्यों नहीं है! तो क्या लोकतंत्र के पिछले दरवाज़े से तानाशाही दस्तक दे रही है? लोकतंत्र के रहते दोहरे मापदंड क्यों?
  • 21. 12:25 IST, 29 दिसम्बर 2010 Ashiq:
    विनोद जी आप तैयार रहें अगला नंबर आपका हो सकता है.
  • 22. 13:55 IST, 29 दिसम्बर 2010 Gurpreet:
    मैं समझता हूँ कि ब्लॉगर को ऐसा कुछ लिखने से पहले ध्यान रखना चाहिए कि अगर बिनायक सेन चीन, ईरान या रूस में या ऐसे किसी देश में होते तो उनसे बिना एक सवाल पूछे मौत की सज़ा दे दी गई होती. अरूंधति राय और सैयद अली शाह गिलानी जैसे लोग इस देश में दी गई आज़ादी का दुरुपयोग करते हैं. बिनायक सेन हो सकता है कि निर्दोष हों लेकिन मैं नक्सलियों के साथ उनकी हमदर्दी की कोई वजह समझ नहीं पा रहा हूँ. नक्सली क्रूरतापूर्वक पुलिस वालों को, अर्धसैनिक बलों के लोगों को मार रहे हैं और देश इसके लिए बड़ी क़ीमत चुका रहा है.
  • 23. 15:25 IST, 29 दिसम्बर 2010 Parthiv Kumar:
    अदालत का शासन के एजेंट की तरह काम करना देश और लोकतंत्र दोनों के लिए बहुत ख़तरनाक है. विनायक सेन के मामले में रायपुर के सत्र न्यायालय ने तथ्यों की जिस तरह अनदेखी की वह वाकई हैरान करने वाला है.
  • 24. 15:41 IST, 29 दिसम्बर 2010 E A Khan, Jamshedpur:
    विनोद वर्मा जी आप को जो लिखना था आपने लिख दिया क्योंकि यह आप की रोज़ी रोटी का एक हिस्सा है जो आप ईमानदारी से निभा रहे हैं. लेकिन स्थिति तो एक सूत भी नहीं सुधरती हुई लगती है. नक्सली उसी तरह लोगों को मार रहे हैं. घोटालेबाज़ उसी तरह समय-समय पर अपना चमत्कार दिखाते रहते हैं. आम कश्मीरी उसी तरह से बेबस ज़िन्दगी के दिन गुज़ार रहे हैं. इस लिखा पढ़ी से सिर्फ पढ़ने वालों का मन चिंता क्रोध, भय, लाचारी से अशांत हो उठता है कि अगर इस देश की हालत इसी तरह की रही तो उनका और उनके बाल बच्चों का क्या होगा. मैं झारखंड का हूँ. आम आदिवासी लोगों की हालत किसने सुधारी है? मैं रोज़ देखता हूँ आदिवासी महिलाएं छोटे-छोटे बच्चों को लेकर ठेकेदारों (जो असल में माफ़िया हैं) के यहाँ न्यूनतम मज़दूरी, जो सरकार की ओर से केवल कागजों पर निर्धारित है, से कम पर काम करने निकल जाती हैं और उनको अँधेरा होने पर ही छुट्टी मिलती है. कहाँ गया नक्सलियों का आंदोलन? जंगल में रह कर गोली बंदूक चलाने से ग़रीब लोगों का भला नहीं होने वाला है और न उन्हें सरकार और न तो जनता का सहयोग मिलेगा और पक्की बात है. न तो व्यवस्था ही उनके आगे झुकने वाली है. दूसरी बात मेरी अपनी सोच और सभी ब्लॉग या और कुछ लिखने पढ़ने वालों को सलाह है कि कागज़ी घोड़ा दौड़ाने की जगह धरातल पर भी आइए और कुछ ठोस करने का प्रयास कीजिए जिससे कि स्थिति में कोई सुधार होता नज़र आए.
  • 25. 17:15 IST, 29 दिसम्बर 2010 BHEEM SINGH:
    इतना बढ़ा-चढ़ाकर जलेबी की तरह लिखने की क्या ज़रुरत है? सरकार ही देश है, सोनी-मोनी की जोड़ी दो लाख करोड़ पर एकदम चुप है, स्पष्ट हो जाता है कि दाल में कुछ काला है. आप क्यों लकीर पीट रहे हैं. रही बात विनायक सेन की तो भाई जी हमारे देश में घूस के बल पर कुछ भी हो सकता है. विश्वास कीजिए. यदि बिनायक सेन किसी नेताजी के रिश्तेदार होते तो कोई क़ानून बनाकर उन्हें बाहर ले आया जाता.अपना देश और क़ानून बड़ा उदार है जी.
  • 26. 19:45 IST, 29 दिसम्बर 2010 himmat singh bhati:
    विनोद जी मुझे तो ये लोकतंत्र कम भीड़ तंत्र देश ज़्यादा दिखाई दे रहा है. ज़्यादा बच्चे पैदा करो और दूसरों का हक़ मारो. चाहो उनको अच्छा खाना न खिला सको, अच्छी शिक्षा न दिला सको लेकिन परिवार बड़ा होना ज़रुरी है. यही भीड़ तो वोट डालने के काम आ रही है. यही भीड़ अपनी ताक़त के बल पर अपनी बात भी मनवा रही है. एक हमारा ही देश है जहाँ साहूकार और बेईमान भी गीता पर हाथ रखकर शपथ लेते हैं कि वे जो भी कहेंगे सच कहेंगे और सच के अलावा कुछ नहीं कहेंगे. लेकिन वे फिर भी झूठ बोलते हैं. सरकारी महकमों का क्या कहना, वहाँ तो बिना पैसा दिए कोई काम होता ही नहीं है. लेकिन ये लोग देशद्रोही नहीं हैं. हमारे नेता घोटालों पर घोटाले कर रहे हैं लेकिन वे देशद्रोही नहीं हैं क्योंकि वे जनप्रतिनिधि हैं. ये वही देश है विनोद जी जहाँ 22 प्रतिशत लोग मालामाल हो रहे हैं और 78 प्रतिशत लोग बिना मक़सद के अपनी ज़िंदगी जी रहे हैं. जो किसान अनाज पैदा कर रहा है उसे आत्महत्या पर मजबूर होना पड़ रहा है. आदिवासियों को सरकार आज भी आदिवासी रखना चाहती है. वे चाहते हैं कि लोग ग़रीब और पिछड़े रहें और वोट देते रहें. यही कारण है कि वे आदिवासियों का विकास नहीं करना चाहते. जो ग़रीब के लोग के लिए बोलेगा वही देशद्रोही होगा और जो घोटाले करेगा वह पूज्यनीय हो जाएगा. यही अब लोकतंत्र की परिभाषा बनती जा रही है.
  • 27. 23:25 IST, 29 दिसम्बर 2010 v.k.trivedi:
    विनोद जी विनायक सेन को अदालत ने देशद्रोही माना है तो उन्हें सज़ा मिलनी ही चाहिए आप जैसे लोग दूसरे लोगों के उदाहरण देकर बिनायक सेन को निरपराधी घोषित नहीं कर सकते. आर लोग नक्सलवाद की जिस विचारधारा की बात कर रहे हैं वो विचारधारा कब की खत्म हो चुकी है.
  • 28. 09:49 IST, 30 दिसम्बर 2010 Kesha Yadav - Jaunpur:
    विनोदजी "देश और द्रोह का सवाल" खड़ा करके आपने काफी बड़ा झमेला मोल ले लिया है. आपके लेख पर जितनी टिप्पणियाँ आई हैं उनमें अनेक तरह के विचार आए हैं, पर एक बात साफ़ तौर पर निकलकर आ गई है कि लड़ने के लिए लड़ना या न्याय के लिए लड़ना. साफ़ दिखता है कि न्याय के लिए लड़ने वाले अंततः टूटने लगते हैं क्योंकि जिस तरह से देश फलफूल रहा है वहां की विडम्बनाएँ तो इसी तरह की ही होंगी. वह विनायक सेन का मामला हो, भ्रष्टाचार का सवाल हो, भूख का सवाल हो यह सब देखने की ज़िम्मेदारी जिस देश की जनता ने जिस किसी को दिया है वह अपने एक सत्तापुत्र को देश सौपने के पूरे यत्न कर रहा है. इन सब का जबाब आपके दूसरे लेख में साफ़ तौर पर दिखाई दे रहा है '२०१० मूर्ति भंजक ...'. अब बहस के सहारे सारे संकट समाप्त नहीं हो रहे हैं तो उन पर चर्चा करना या लिखना बंद कर दिया जाए क्योंकि इससे देश की छवि ख़राब होती है या ख़राब होने का खतरा बढ़ जाता है. यह सोच ही हमें पंगु बनाने पर आमादा है.
  • 29. 10:04 IST, 30 दिसम्बर 2010 DKmahto:
    इस देश में नेता भाषण देकर
    अधिकारी लाचारी का रोना रोकर
    आम आदमी चुप्पी साधकर
    पत्रकार लछेदार लेख लिखकर
    हम जैसे लोग इस पर व्यंग लिखकर
    या लेखक की सराहना या विरोद्ध करके
    आओ हम अपने कर्तव्यों को पूरा समझे
    हम लोग ज़रूर सुधर जाएगा.
  • 30. 10:37 IST, 30 दिसम्बर 2010 vishal:
    विनोद जी, लंदन में बैठकर शायद गधे और घोड़े एक जैसे दिखते होंगे. पर पास से ऐसा कुछ नहीं. हम भारत के लोग जानते हैं कि क्या ग़लत है और क्या सही. चूंकि अर्थव्यवस्था में तेज़ी से परिवर्तन हो रहा है इसलिए भ्रष्टाचार एक मुद्दा है. इसलिए कई बार हमारे संस्थान अपने आपको असमर्थ पाते हैं और आने वाले समय में यह और बढ़ सकता है. हमें इसका समाधान तलाश करना होगा.
  • 31. 10:41 IST, 30 दिसम्बर 2010 vishal:
    विनोदजी बाहर से शायद सब कुछ एक जैसा नज़र आता है.हम भारत के लोग जानते है कि क्या ग़लत है और क्या सही है.भ्रष्टाचार एक मुद्दा है और उसका कारण अर्थव्यवस्था में आया बदलाव है.हमें इसका हल निकालना होगा.
  • 32. 11:06 IST, 30 दिसम्बर 2010 BHEEM SINGH:
    ये बात एकदम सही है.भारत में इज़्जत से जीने का एक ही रास्ता है.आप अरूंधति और गिलानी या उमर फ़ारूख़ की भाषा ही बोलो.मीडिया और सरकार आपको इज़्जत देगी.अगर आप अहिसां का विकल्प अपनाते है तो आपकी कोई इज़्जत नहीं करेगा.अब मेरा सरकार ,मीडिया और न्याय से विश्वास ही उठ गया है.सब पैसे के पीछे भागते है.
  • 33. 13:18 IST, 30 दिसम्बर 2010 PRAVEEN:
    गुरूजी, जितनी बात अरुंधति, गिलानी, उमर फ़ारूक़, यासीन मलिक करते हैं, सिर्फ़ भारत में ही चलता है. भारत के लोग ही सब विष पी लेते हैं. यदि अमरीका या इस्लामी देशों में ये लोग बोलते तो फ़तवा या सीआईए की दवाई खानी पड़ती. एक बार इस्लामिक लोगों के ख़िलाफ़ बोलकर तो देखिए, भूल जाएँगे पत्रकारिता.
  • 34. 15:27 IST, 30 दिसम्बर 2010 Mansi Shah:
    आपका लेख निष्पक्ष नहीं है. ये तभी होता जब अलगाववादिओं की चिंता के साथ आपने उन लोगो का भी जिक्र किया होता जो उनका विरोध करते है. एक सीधा सवाल है की कश्मीर और मानव अधिकार की बात करने वाले जम्मू,लेह,लद्दाख और पंडितों का अधिकार कैसे छीन सकते हैं? एक की राय को स्वतंत्रता और दूसरे की राय आपखुद शाही? ये लोकतंत्र ही है जहाँ अरुंधति राय को कई मौक़े मिलेंगे अपनी बात रखने के और कसाब अब तक अपनी बात रख रहा है, और भारत से कोई दलाई लामा की तरह निर्वसन और आंग सान सू ची की तरह सजा नहीं काट रहा है. सच ये है कि घपलेबाज़ राजनेता और लोकतंत्र के विरोधी दोनों ही दोषी है और दोनों को सज़ा होनी ही चाहिए.
  • 35. 15:59 IST, 30 दिसम्बर 2010 bam shankar:
    अगर एक भी नेता ये पढ़कर सुधर जाए तो मैं समझूँगा कि आपका लेखन सफल हुआ, वो दिन दूर नहीं जब इन नेताओं के चलते पूरा हिंदुस्तान लुट जाएगा.
  • 36. 19:13 IST, 30 दिसम्बर 2010 डॉ. देवेन्द्र चौहान :
    विनोद जी, सच काश इतना सरल होता कि बिनायक सेन केवल समाज सेवा करने वाले एक डॉक्टर होते, अरुंधति रॉय सिर्फ़ ग़रीब मजलूमों की आवाज़ बुलंद करने वाली क्रांतिकारी विचारों वाली लेखिका होतीं, तो आपको इस मुद्दे पर दो कौड़ी के नेताओं, पत्रकारों और अफसरों की काली करतूतों की दुहाई नहींरामदत